Siyaram ka gaon
आदमी यदि बड़ी-बड़ी और लम्बी यात्राएँ न कर सके तो उसे छोटी-छोटी यात्राएँ करनी चाहिए। अपने आस-पास निकट की यात्राएँ। सुबह निकले, शाम तक लौट आए।
आदमी का मन मुसाफिर जैसा होना चाहिए। स्वभाव संन्यासी जैसा। संन्यास जन्म भर के लिए न लिया जा सके तो अल्पकालिक भी हो सकता है। एक दिन के लिए भी। सुबह अपने घर से निकले, घर-बार सब कुछ छोड़ कर संन्यासी की तरह, मुसाफिर की तरह, शाम को वापस लौट आए ठिकाने पर गृहस्थ की तरह, घर पर रहे गृहस्थ की तरह, बाहर निकले मुसाफिर की तरह, यात्री की तरह, संन्यासी की तरह।
अपनी संस्कृति में अनेक ऋषि-मुनि, संन्यासी गृहस्थ हुए रहे। अभी भी कुछ लोग हैं- ऐसे मन मिजाज वाले। बाबा नागार्जुन और राहुल जी न थे! आसक्ति और निरासक्ति की मिली-जुली मन वाली ही तो है हमारी संस्कृति। इसमें दोनों के समन्वय के बिना काम नहीं चलता। ब्रह्म का माया के बिना। आत्मा का काया के बिना। राग का विराग और गृहस्थ का संन्यास के बिना। इसे ही हम समन्वय-साझेदारी या मिली-जुली संस्कृति कहते हैं। इसी मानसिकता का निर्वाह अनेक लोग सद्भावी होकर करते हैं। जीवन कोई-सा भी हो- उसका सद्भावी होना बुनियादी और पहली शर्त है।
जीवन में पाखण्ड और आडम्बर का मेल समन्वय नहीं है- वह मिलावट है। प्रदूषण है। समन्वय, समायोजन और सहअस्तित्व का अत्यन्त रोचक, मनमोहक रूपक ही तो है- जल में कमल की तरह।
-अम्बिकादत्त
"1140921244"
Siyaram ka gaon
आदमी यदि बड़ी-बड़ी और लम्बी यात्राएँ न कर सके तो उसे छोटी-छोटी यात्राएँ करनी चाहिए। अपने आस-पास निकट की यात्राएँ। सुबह निकले, शाम तक लौट आए।
आदमी का मन मुसाफिर जैसा होना चाहिए। स्वभाव संन्यासी जैसा। संन्यास जन्म भर के लिए न लिया जा सके तो अल्पकालिक भी हो सकता है। एक दिन के लिए भी। सुबह अपने घर से निकले, घर-बार सब कुछ छोड़ कर संन्यासी की तरह, मुसाफिर की तरह, शाम को वापस लौट आए ठिकाने पर गृहस्थ की तरह, घर पर रहे गृहस्थ की तरह, बाहर निकले मुसाफिर की तरह, यात्री की तरह, संन्यासी की तरह।
अपनी संस्कृति में अनेक ऋषि-मुनि, संन्यासी गृहस्थ हुए रहे। अभी भी कुछ लोग हैं- ऐसे मन मिजाज वाले। बाबा नागार्जुन और राहुल जी न थे! आसक्ति और निरासक्ति की मिली-जुली मन वाली ही तो है हमारी संस्कृति। इसमें दोनों के समन्वय के बिना काम नहीं चलता। ब्रह्म का माया के बिना। आत्मा का काया के बिना। राग का विराग और गृहस्थ का संन्यास के बिना। इसे ही हम समन्वय-साझेदारी या मिली-जुली संस्कृति कहते हैं। इसी मानसिकता का निर्वाह अनेक लोग सद्भावी होकर करते हैं। जीवन कोई-सा भी हो- उसका सद्भावी होना बुनियादी और पहली शर्त है।
जीवन में पाखण्ड और आडम्बर का मेल समन्वय नहीं है- वह मिलावट है। प्रदूषण है। समन्वय, समायोजन और सहअस्तित्व का अत्यन्त रोचक, मनमोहक रूपक ही तो है- जल में कमल की तरह।
-अम्बिकादत्त
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Overview

आदमी यदि बड़ी-बड़ी और लम्बी यात्राएँ न कर सके तो उसे छोटी-छोटी यात्राएँ करनी चाहिए। अपने आस-पास निकट की यात्राएँ। सुबह निकले, शाम तक लौट आए।
आदमी का मन मुसाफिर जैसा होना चाहिए। स्वभाव संन्यासी जैसा। संन्यास जन्म भर के लिए न लिया जा सके तो अल्पकालिक भी हो सकता है। एक दिन के लिए भी। सुबह अपने घर से निकले, घर-बार सब कुछ छोड़ कर संन्यासी की तरह, मुसाफिर की तरह, शाम को वापस लौट आए ठिकाने पर गृहस्थ की तरह, घर पर रहे गृहस्थ की तरह, बाहर निकले मुसाफिर की तरह, यात्री की तरह, संन्यासी की तरह।
अपनी संस्कृति में अनेक ऋषि-मुनि, संन्यासी गृहस्थ हुए रहे। अभी भी कुछ लोग हैं- ऐसे मन मिजाज वाले। बाबा नागार्जुन और राहुल जी न थे! आसक्ति और निरासक्ति की मिली-जुली मन वाली ही तो है हमारी संस्कृति। इसमें दोनों के समन्वय के बिना काम नहीं चलता। ब्रह्म का माया के बिना। आत्मा का काया के बिना। राग का विराग और गृहस्थ का संन्यास के बिना। इसे ही हम समन्वय-साझेदारी या मिली-जुली संस्कृति कहते हैं। इसी मानसिकता का निर्वाह अनेक लोग सद्भावी होकर करते हैं। जीवन कोई-सा भी हो- उसका सद्भावी होना बुनियादी और पहली शर्त है।
जीवन में पाखण्ड और आडम्बर का मेल समन्वय नहीं है- वह मिलावट है। प्रदूषण है। समन्वय, समायोजन और सहअस्तित्व का अत्यन्त रोचक, मनमोहक रूपक ही तो है- जल में कमल की तरह।
-अम्बिकादत्त

Product Details

ISBN-13: 9789390605293
Publisher: Prabhakar Prakshan
Publication date: 08/28/2020
Sold by: Barnes & Noble
Format: eBook
File size: 627 KB
Language: Hindi
From the B&N Reads Blog

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