काव्य का स्थान समस्त वैचारिक सत्ता और जगत् में न केवल सर्वोपरि है बल्कि अपनी भाववाची सृजनात्मक प्रकृति के कारण उसे परमपद भी कहा जा सकता है। अन्य वैचारिक संज्ञाएँ भले ही वे धर्म, दर्शन, ज्ञान-विज्ञान या अध्यात्म की ही क्यों न हों, भाववाची सृजनात्मक न होने के कारण वे किसी न किसी कारण से सीमाएँ ही हैं। इस अर्थ में काव्य ही एक मात्र निर्दोष सत्ता है। वैचारिक विराटता जब सर्जनात्मक तथा संकल्पात्मक होती है तब उस ऋतम्भरा मधुमती भूमिका की प्रतीति सम्भव है जिसके लिए धर्म, दर्शन, ज्ञान-विज्ञान या अध्यात्म विभिन्न मार्ग और माध्यम सुझाते हैं। वैसे तो प्रयोजन एक ही है अतः काव्य का भी प्रयोजन है कि मनुष्य मात्र को उसके भीतर जो अनभिव्यक्त ‘पुरुष’ है उसे रूपायित और संचरित किया जाए। साथ ही जितनी भी पदार्थिक संज्ञाएँ हैं उनको उनके महत् रूप ‘प्रकृति’ के साथ तदाकृत किया जाए। विराट् ‘पुरुष’ और महत् ‘प्रकृति’ की यह युगल-लीला ही काव्य का भी प्रेय है। काव्य ही शब्द-शक्ति और प्राण-शक्ति दोनों की पराकाष्ठा है। काव्य न तो विज्ञान की पदार्थिक खण्ड-दृष्टि है और न ही अध्यात्म की अनासक्त तत्त्व-भाषा, योग मुद्रा। यदि काव्य की कोई मुद्रा सम्भव है तो वह अर्धनारीश्वर जैसी ही होगी। लग्न में जिस प्रकार ‘मिथुन’ और राशियों में जिस प्रकार कन्या है, प्रतीति और अभिव्यक्ति के क्षेत्र में वही स्थिति काव्य की है। कहा जा सकता है कि सृष्टि, सृष्टि का कारण और सृष्टि की क्रिया का यदि कोई नाम सम्भव है तो वह ‘काव्य’ ही हो सकता है...